हिम्मत हार कर बैठा था में,
पीठ फिराये भविष्य से।
हार चुका था अपनी शक्ति,
अपनी ही कमजोरी से ।
देखा मैंने एक मकड़ी को,
बार बार गिरते हुए।
अपने ही बुने हुए जाल पर फिर भी,
कई बार जो सँभलते हुए।
गिरती रही, सँभलती रही पर..
बुनती रही अपना जाल।
जाल पुरा बना चुकने पर मकड़ी,
हो गई निहाल।
एक सी छोटी मकड़ी ने,
मुझमें भर दी हिम्मत अपार।
कुछ करने की ठान ली मैंने,
अब ना रहा मैं यूँ लाचार।
मकड़ी ने सिखलाया मुझको,
हरदम कोशिश करते रहना।
"दीपेश" कितनी बाधाएं आयें,
हरदम कदम बढाते रहना।